शुक्रवार, अक्तूबर 27, 2006

मृत्यु का संदेश

मुत्यु से कया डरना मानव!
प्रक्रिया परिधान परिवर्तन का यह।
मर रहा जो त्याज्य वह है,
मोह कैसा करना मानव!
मुत्यु से कया डरना मानव.....!

वही रुदन स्वाभाविक तेरा,
जन्म लेते जब मृत्यु वन में।
बिछुड़ अस्सीम अनन्त से जब,
बंध जाते किसी सीमित तनमंे।
स्वतंत्र अस्तित्व के अम्बर से जब,
पराधीन जीवन में बंध्ना मानव!
मुत्यु से कया डरना मानव....!

जीर्ण-शीर्ण खंडहर में रहकर,
कौन भला सुख पाता है।
ढ़ह जाने दो पार्थिव गृह को
हो शाश्वत घर संरचना मानव!
मुत्यु से कया डरना मानव.....!

मृत्यु तो संदेश प्रेम का,
आता जो तेरे निज आश्रम से।
विस्मृत कर जिस शाश्वत संबंध को,
आशक्त हुए नव जीवन से।
अब छोड़ कुटुम्ब का आतिथ्य सखे,
अपने घर को जाना मानव।
मुत्यु से कया डरना मानव....!

ज्यों बिछुड़ कर सिंधु से जल,
अम्बर में जा उमड़-घुमड़ता।
फिर नद-प्रणाल से होकर जैसे,
सागर ही में जाकर मिलता।
सागर से ही कण तुम बिछुड़े,
अनगिन योणि से चलकर आए।
भय कैसा इस महा प्रयाण में,
जब सागर में ही मिलना मानव।
मुत्यु से कया डरना मानव........!

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