सोमवार, अक्तूबर 30, 2006

मोह महिमा

रे व्यर्थ ज्ञान पाखंड में पर
त्यागते तुम मोह को ।
रे मोह का बन्धन मधुर,
मोह का स्वरूप सुन्दर।
मोह का मुस्कान कोमल,
मोह का परिधान मनोहर।
रे मोह का आनन्द विरल,
मोह जनित वेदना शीतल।

रे व्यर्थ......

रे मोह वह धूरी कि जिसपर,
नाचते हैं राग-द्वेष सब।
मोह वह आवृत कि जिसपर,
घूमता सम्बन्ध परस्पर।
मोह वह चुम्बक कि जो खींचताबर्बस,
हृदय का डोर धर

रे व्यर्थ......

रे मोह से ही संचालित सभी,
सृष्टि का सृजन व्यापार है ।
मोह ही तो काटता विरक्ति का हर तार है।
रे मोह से है त्याग,
मोह ही करुणा।
मोह ही मातृत्व,
मोह ही परिवार।

रे व्यर्थ.....

रे देख, इतिहास-पुराण में,
है कौन ऐसा शूर-वीर ?
बचकर निकल पाया अविचलित,
विधि रचित इस मोह-पाश से।
रे पूछ अपने पूर्वजों से,
झाँक अतीत की गहराइयों में,
रे पूछ द्रोण, अर्जुन, भीम से
यदि कह सकें सब पारदर्शित,
कब बाँध अपने मोहपाश में ?
कर दिया था मोह क्षणभर,
निरश्त्र,निरुत्तर किस तरह,
विरक्ति के उस शूर को।

रे व्यर्थ ज्ञान.....

यदि शक्ति है तुझमें ओ मानव,
स्वीकार कर इस तथ्य को।
न व्यर्थ कर अभिमान,
अपने छद्म नीति ओ बु़द्धि पर,
विरक्ति है कृतृम, मोह है प्रकृति,
विरक्ति है पलायन, मोह है संघर्ष।
विरक्ति है पराजय, मोह है उत्कर्ष

रे व्यर्थ ज्ञान......

शुक्रवार, अक्तूबर 27, 2006

मृत्यु का संदेश

मुत्यु से कया डरना मानव!
प्रक्रिया परिधान परिवर्तन का यह।
मर रहा जो त्याज्य वह है,
मोह कैसा करना मानव!
मुत्यु से कया डरना मानव.....!

वही रुदन स्वाभाविक तेरा,
जन्म लेते जब मृत्यु वन में।
बिछुड़ अस्सीम अनन्त से जब,
बंध जाते किसी सीमित तनमंे।
स्वतंत्र अस्तित्व के अम्बर से जब,
पराधीन जीवन में बंध्ना मानव!
मुत्यु से कया डरना मानव....!

जीर्ण-शीर्ण खंडहर में रहकर,
कौन भला सुख पाता है।
ढ़ह जाने दो पार्थिव गृह को
हो शाश्वत घर संरचना मानव!
मुत्यु से कया डरना मानव.....!

मृत्यु तो संदेश प्रेम का,
आता जो तेरे निज आश्रम से।
विस्मृत कर जिस शाश्वत संबंध को,
आशक्त हुए नव जीवन से।
अब छोड़ कुटुम्ब का आतिथ्य सखे,
अपने घर को जाना मानव।
मुत्यु से कया डरना मानव....!

ज्यों बिछुड़ कर सिंधु से जल,
अम्बर में जा उमड़-घुमड़ता।
फिर नद-प्रणाल से होकर जैसे,
सागर ही में जाकर मिलता।
सागर से ही कण तुम बिछुड़े,
अनगिन योणि से चलकर आए।
भय कैसा इस महा प्रयाण में,
जब सागर में ही मिलना मानव।
मुत्यु से कया डरना मानव........!

शुक्रवार, अक्तूबर 20, 2006

दीपावली की हार्दिक शुभकामना

प्रकाशपर्व,
सब अंधकार हर ले,
ज्योतिर्मय जग कर दे....।

गृह-गृह दीप्तित,
दीप्तित तन-मन।
ज्योति-पर्व यह,
ज्योतिर्मय कण-कण।
दीप्तित ज्यों कार्तिक अमावाश्या,
दीप्तित हों हर उर के घन तम....।
मन में आलोक भर दे.....

सब ज्योतिर्मय कर दे....।

तिरोहित क्लेष के तम,
उद्भासित हर्ष से मन।
तिरोहित रोग सा तम,
कांतिमान स्वस्थ तन।
तिरोहित द्वेष के तम,
आलोकित हों
भर राग से मन.......।
तम हों विलीन,
मन में दीप जले .......।

प्रकाशपर्व,
अंधकार हर ले,
सब ज्योतिर्मय कर दे....।

सोमवार, अक्तूबर 16, 2006

कविता की आत्म कथा


मैं नहीं मात्र कल्पना कवि की,
मैं नहीं व्यंजना निज दुख की,
नहीं दिवा स्वप्न सुखकामी का,
नहीं सुकमार भावना प्रिय की।

मैं नहीं मात्र छंद-बंध चमत्कार,
नहीं स्वछन्द शब्द क्र्रीड़ा-विलास,
नहीं मनोरंजन किसी रति-कामी का,
मैं नहीं मात्र श्रृंगार अलंकारों का।

मैं शारदा की विरल वरदान सखे!
दिव्य लोक मानस से चलकर आयी,
नर-पशुओं को मनुष्यत्व सिखाने,
मानव संस्कृति की ज्योति जगाने।

मैं विद्युत् कण सी छटा विखेरती,
रक्त धमनि में स्पन्दन भरती,
मानवता के पूजा की प्रथम पुष्प,
पथ भ्रमित को सतपथ दिखलाती।

मैं भाव तूणीर की बाण सखे !
पाषाण हृदय को भेद अतल से,
संवेदना की निर्झरणी बन आती,
स्नेह-प्रेम की फूल खिलाती ।।

मैं विचार अनल की चिनगारी,
हिमघनीभूत हृदय में कर प्रवेश,
निष्क्र्रिय विचारों को पिधलाकर,
भावों की उज्वल आभा फेलाती ।।

मैं घृणा, द्वेष के भाव मिटाती,
सद् विवेक की ज्योति जगाती।।
मन के अंध-गह्वर में कर प्रवेश,
'तमसो मा ज्योर्तिगमय`-पाठ पढ़ाती।