सोमवार, अक्तूबर 16, 2006

कविता की आत्म कथा


मैं नहीं मात्र कल्पना कवि की,
मैं नहीं व्यंजना निज दुख की,
नहीं दिवा स्वप्न सुखकामी का,
नहीं सुकमार भावना प्रिय की।

मैं नहीं मात्र छंद-बंध चमत्कार,
नहीं स्वछन्द शब्द क्र्रीड़ा-विलास,
नहीं मनोरंजन किसी रति-कामी का,
मैं नहीं मात्र श्रृंगार अलंकारों का।

मैं शारदा की विरल वरदान सखे!
दिव्य लोक मानस से चलकर आयी,
नर-पशुओं को मनुष्यत्व सिखाने,
मानव संस्कृति की ज्योति जगाने।

मैं विद्युत् कण सी छटा विखेरती,
रक्त धमनि में स्पन्दन भरती,
मानवता के पूजा की प्रथम पुष्प,
पथ भ्रमित को सतपथ दिखलाती।

मैं भाव तूणीर की बाण सखे !
पाषाण हृदय को भेद अतल से,
संवेदना की निर्झरणी बन आती,
स्नेह-प्रेम की फूल खिलाती ।।

मैं विचार अनल की चिनगारी,
हिमघनीभूत हृदय में कर प्रवेश,
निष्क्र्रिय विचारों को पिधलाकर,
भावों की उज्वल आभा फेलाती ।।

मैं घृणा, द्वेष के भाव मिटाती,
सद् विवेक की ज्योति जगाती।।
मन के अंध-गह्वर में कर प्रवेश,
'तमसो मा ज्योर्तिगमय`-पाठ पढ़ाती।

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