सोमवार, अगस्त 15, 2011

अंतर्धारा एक है...।

अंतर्धारा एक है...।


रग-रग में अब भी आजादी की
भावना वह शेष है,
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।

माना झंझावातों से
अबतक हम भी जूझ रहे हैं,
जाति धर्म के नारों में
अपनेपन को भूल रहे हैं,
फिर भी कुछ है इस धरती में,
जाने क्या परिवेश है,
रग-रग में अब भी आजादी की
भावना वह शेष है,
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।

हम उत्तर हैं तुम दक्षिण हो,
हम पूरब हैं तुम पश्चिम हो
स्पर्धा के मारे हम
सौ-सौ ताने देते रहते।
दिल का डोर जुुड़ा है चहुदिस,
मत कहना यह द्वेष है,
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।


रग-रग में अब भी आजादी की
भावना वह शेष है,
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।

भले कभी घिर जाए हम पर
मजहब के काले-काले बादल
भले क्रोध से भरक उठें हम
आपस में, जब गहराए बादल
टिक न सके भारत के आंगन में
इस सूर्य में अब भी तेज है,
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।


अपनी मति से अपनी गति से
अपने-अपने पथ पर बढते,
अपना पूजन अपना अर्चन
अपना-अपना वेश है
पथ भले हमारा पृथक-पृथक है
मंजिल अपना देश है,
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।

रग-रग में अब भी आजादी की
भावना वह शेष है,
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।

घायल होता हिम किरीट
जिनके नापाक इरादों से,
लाल होता धवल हिम
अरि के शोनित धारों से
जिनकी तिरछी नजड़े हम पर
उनको यह संदेश है
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।


रंग विरंगे फूल हैं लेकिन
बागवाँ यह एक है,
एक है धरती, एक ही मनसा
एक हमारा देश है,
इस तिरंगे के रंगों में सच्चा,
रंग भरा रंगरेज है,

रग-रग में अब भी आजादी की
भावना वह शेष है,
दिखते हों हम अलग-अलग, पर
अंतर्धारा एक है...।



कलानाथ मिश्र