कुसुमागम
अनगिन रंगों में मुस्काती
चपल, चंचल, मृदुल चाल
इठलाती, मदमाती
रोम-रोम स्पंदित करती
सुभग, सुवास फैलाती
आई तुम मेरे आंगन...।
सपनों को साकार बनाती
इन्द्रधनुषी छटा दिखाती
रूप, लावण्य नैनाभिराम,
स्नेह शिक्त अधरों से
मेरे कपोल सहलाती
आई तुम मेरे आंगन...।
श्रृष्टि शिल्प का मोहक रूप
नैसर्गिक शोभा बिखराती
जीवन में,
प्राण शक्ति अर्पित करती
कामदेव कमान की
अविजित कलाप तुम
हिय में सौ-सौ राग जगाती
आई तुम मेरे आंगन...।
आई मधु़ऋतु के संग-संग
रवि के सप्तरंग अभिमिश्रण,
धारण कर असीम रूप-रंग
हरने दुःख मालिन्य भू पर
भरने पुलक, राग, उल्लास,
फागुन को अनुरंजित करने...।
आई तुम मेरे आंगन...।
मृत्युलोक यह किन्तु अली!
व्यथित नेत्र से हमने देखा,
तुमको भी कुम्हलाते,
जीर्ण शीर्ण पंखुरियों का
अभित्यजन करते
शांत, तटस्थ, सहिष्णु,
अनाशक्त भाव से,
स्वीकृत करते
सृष्टि का चिरंतन अनुशासन।
हुई विलीन तुम आत्मस्थ भाव से
कांतिहीन कर इस आँगन को
धीरे..धीरे...धीरे..
मेरे जीवन के उपवन से ...।
आयी देने तुम सीख मनुज को
अपनाने सृष्टि का अक्षर अनुशासन
शांत, सरल, संयमित, तटस्थ भाव से।
प्रिय !आओगी पुनि तुम
अनुरंजित करने इस उपवन को
निज बीज से अंकुरित होकर
वसुधा की कोख से।
पुनः ऋतुराज पीताम्बर पसार
करेंगे तुम्हारा अभिवादन
पुनः नैसर्गिक छटा बिखेरोगी
तुम भू पर।
रवि रंग भरेगा तुममें
फागुन फिर रंगीन बन जाएगा।
अनगिन रंगों में मुसकाओगी
चपल, चंचल, मृदुल चाल चलोगी
इठलाओगी, इतराओगी
रोम-रोम स्पंदित करती मुसकाओगी ।
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